Growth and Development

 Psychology 

Growth and Development (अभिवृद्धि एवं विकास )


  • पेस्टोलॉजी ने 1774 ई. में  अपने ही 3.5 वर्षीय पुत्र का अध्ययन किया और उसके विकास को समझते हुए बेबी बायोग्राफी नामक लेख लिखा |
  • नोट :- सर्वप्रथम बालक के विकास को लेकर जो विचार पेस्टोलॉजी के द्वारा बेबी बायोग्राफी के माध्यम से आगे बढ़ा उसी के परिणाम स्वरूप बाल – मनोविज्ञान का जन्म हुआ इसलिए पेस्टोलॉजी को बाल मनोविज्ञान का जनक कहते है |
  • पेस्टोलॉजी के लेख को जर्मन के ही बाल रोग विशेषज्ञ टाइडमैन ने पढ़ा और समझा उसके आधार पर बाल चिकित्सा मनोविज्ञान की विचार धारा का विकास किया |
  • 19 वीं सदी में श्रीमती हरलॉक ने विचार दिया की एक बालक का विकास गर्भकाल से ही प्रारम्भ हो जाता है |
  • जब हम बालक के विकास का अध्ययन जन्म के बाद की अवस्थाओं को लेकर करते है, तो यह बाल मनोविज्ञान कहलाता है, परन्तु यदि जन्म पूर्व गर्भावस्था से अध्ययन की शुरुआत करते है तो बाल विकास होता है |

जीव विज्ञान के अनुसार :- 

  • परिवर्धन जैविकी (Developmental Biology) :- जीव विज्ञान की वह शाखा जिसमें व्यक्तिवृतीय परिवर्धन का अध्ययन किया जाता है अर्थात् Zygote बनने से लेकर मृत्यु पर्यन्त होने वाले सभी प्रगामी तथा प्रतिगामी परिवर्तनों का अध्ययन |
        व्यक्तिवृतीय परिवर्धन को दो भागों में बाँटा गया है – 

    i.    Prenatal Development :- अण्डाणु के निषेचन से लेकर शिशु के जन्म तक का काल |
    ii.   Postnatal Development :- यह शिशु के जन्म के बाद जीवन का सम्पूर्ण काल |



    परिभाषाएं – 
    
        (A) बर्क के अनुसार :- जन्म पूर्व की अवस्था से लेकर परिपक्वता की अवस्था तक का अध्ययन बाल विकास होता है |

        (B) क्रो और क्रो के अनुसार :- गर्भावस्था से लेकर जन्म के बाद किशोरावस्था तक का अध्ययन ही बाल विकास है | 


    
    नोट :- अमेरिकी विद्वान स्टेनली हॉल ने 1893 ई. में अमेरिका से बाल विकास आन्दोलन की शुरुआत की, इसलिए इन्हें बाल विकास आन्दोलन का जनक कहा जाता है | 

    भारत में बाल मनोविज्ञान / बाल विकास के अध्ययन की शुरुआत 1930 ई. से हुई |

    प्रश्न :- एक बालक के विकास में किसका योगदान होता है ?
    
    उत्तर – वंशक्रम एवं वातावरण का 

    वुडवर्थ के अनुसार – एक बालक के विकास में उसके वंशक्रम एवं वातावरण की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है |
    वुडवर्थ का मानना है की एक बालक का विकास उसके वंशक्रम एवं वातावरण का गुणनफल होता है –
        
        विकास = वातावरण x वंशक्रम 
                 या 
        विकास = जैविकता x सामाजिकता 
                या 
        विकास = परिपक्वता x अधिगम 
                या 
        विकास = संख्यात्मक + गुणात्मक 

    

    बालक के जन्म एवं विकास में वंशक्रम की भूमिका –
    
    माता – पिता से पीढ़ी – दर – गुणों का संतानों में आगमन ही वंशक्रम है | 
  •     मानव जीवन का प्रारम्भ निम्न प्रकार से होता है – एक माता पिता के संयोग से गुणसूत्रों का स्थानान्तरण एवं संयोग होता है जिससे हमारे जीवन की शुरुआत होती है | 
  • एक मानव कोशिका में कुल 46 गुणसूत्र पाए जाते है |
  • सर्वप्रथम माता – पिता की ओर से आने वाले 23-23 गुणसूत्र / जनन कोष मिलकर एक संयुक्त कोष का निर्माण करते है जिसे जायगोट कहते है इसी जायगोट से मानव जीवन की शुरुआत होती है | जो एक कोशिका के रूप में होती है |
  • माता – पिता की ओर से आने वाले 22 – 22 गुणसूत्र काय / बॉडी गुणसूत्र कहलाते है जो हमारे शरीर के निर्माण में तथा 1-1 गुणसूत्र लिंग गुणसूत्र होते है जो हमारे लिंग के निर्माण में सहयोग करते है |
नोट :- x गुणसूत्र सदैव लम्बे और y गुणसूत्र सदैव बौने होते है |

  • जब माता और पिता के संयोग से हमारे जीवन की शुरुआत होती है तो दोनों की ओर से आने वाले xx गुणसूत्र बालिका तथा xy गुणसूत्र बालक के रूप में लिंग का निर्धारण करते है | 
अन्य क्षेत्रों में वंशानुक्रम की भूमिका 

  • हमारी मानसिकता के निर्माण में |
  • मानसिक / शारीरिक स्वास्थ्य में |
  • शरीर की संरचना, रंग – रूप एवं कद में |
  • परिपक्वता के विकास में |
  • कार्य व्यवहार एवं व्यवसाय में |
  • वैचारिक / संवेगात्मक / नैतिक एवं अभिवृति के क्षेत्र में |


बालक के विकास में वातावरण की भूमिका 


  • एक बालक के विकास में प्राकृतिक एवं सामाजिक कारकों का जो प्रभाव देखा जाता है, सरल शब्दों में उसे ही वातावरण कह सकते है |
  • वुडवर्थ के अनुसार :- वे सभी तत्व जो जन्म से ही हमें प्रभावित करना प्रारम्भ कर देते है, वातावरण है |
  • जिम्बर्ट के अनुसार :- वे सभी वस्तुएं जो हमें चारों ओर से घेरे है, एवं जन्म से मृत्यु तक प्रभावित करती है, कहलाती है | 
  • रॉस के अनुसार :- वातावरण वह बाह्य शक्ति है जो बालक को जन्म से ही प्रभावित करने लगती है |


प्रमुख वातावरणीय कारक / घटक 

  • जन्म स्थान :- किसी भी बालक का विकास इसके जन्म स्थान से सम्बन्धित ग्रह नक्षत्र, सूर्य-चंद्रमा की गति से प्रभावित होता है |
  • जन्म क्रम ;-  एक बालक का जन्म क्रम भी उसके विकास को प्रभावित करता है एक विशेष शोध में निष्कर्ष प्राप्त हुआ है की पहली व अंतिम संतान की अपेक्षा बीच वाली संतानों का विकास अच्छा होता है |
  • पोषण :- एक बालक को जो भी खाने पीने के लिए दिया जाता है वह पोषण कहलाता है परन्तु इसके लिए जरुरी है कि उसमें सभी प्रकार के आवश्यक तत्व मौजूद हो |
  • परिवार का वातावरण :- किसी भी बालक का जन्म जिस परिवार में होता है उस परिवार का वातावरण उसके विकास को प्रभावित करता है तथा यहाँ शारीरिक, मानसिक एवं नैतिक विकास प्रभावित होता है | 
  • विद्यालय का वातावरण :- किसी भी विद्यालय का माहौल तथा बालकों के प्रति समझ उनके विकास को प्रभावित करती है |
  • खेल मैदान :- बालक के शारीरिक मानसिक विकास में खेल मैदान का विशेष योगदान होता है तथा इससे भी अधिक बालक के समाजीकरण में इसका खास महत्त्व होता है | 
  • मित्र मण्डली :- एक बालक की मित्र मंडली के लोगों के आचरण एवं व्यवहार उनके विकास को प्रभावित करते है |
  • समूद्र तल से दूरी :- समूद्र तल के आस – पास के लोगों की अपेक्षा दूर रहने वाले लोगों का विकास ज्यादा अच्छा मन जाता है |
  • भौगोलिक वातावरण :- मरुस्थल, मैदान, पहाड़ या भूमध्य रेखा से समीपता या दूरी जैसा भौगोलिक वातावरण भी एक बालक के विकास को प्रभावित करता है | 

बाल विकास से सम्बन्धित सिद्धान्त 

  • समानता / समरूपता / समान प्रतिमान का सिद्धान्त :-  (प्रस्तुतकर्ता – सोरेन्सन ) इस सिद्धान्त के अनुसार सभी सजीव प्राणी अपने समान प्रतिमान वाली संतानों को ही जन्म देते है यानि मनुष्य के मनुष्य, पशु के पशु तथा पक्षी के पक्षी ही जन्म लेते है |
  • जनन द्रव्य / बीज कोषों / अमरता का सिद्धान्त :- (प्रस्तुतकर्ता – वीजमेन) यह सिद्धान्त चूहों पर प्र्तोग के आधार पर दिया गया है वीजमेन ने कई पीढ़ियों तक चूहों की पूंछ काटने के बाद भी कोई पीढ़ी ऐसी नही आयी की बिना पूंछ वाला चूहा पैदा हुआ हो, इस आधार पर वीजमेन ने कहा की हमारा जनन द्रव्य / बीजकोष पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतर बने रहते है तथा कभी भी समाप्त नही होते है |
  • अर्जित गुणों के संक्रमण का सिद्धान्त :- (प्रस्तुतकर्ता – लैमार्क) – इस सिद्धांत के अनुसार जो गुण माता – पिता के द्वारा अर्जित किये जाते है उन्ही गुणों को कई बार संतानों में भी प्रकट होते देखा जाता है जैसे लैमार्क ने जिराफ की गर्दन छोटी होती थी परन्तु परिस्थितियों के साथ लम्बी होने लगी और वर्तमान में संतानों में भी ऐसी ही देखी जा सकती है |
  • मौलिक गुणों का सिद्धांत :- (प्रस्तुतकर्ता – ग्रेगर जॉन मेंडल) – इस सिद्धांत के अनुसार कोई भी संकर प्राणी / किस्म / नस्ल कुछ पीढ़ियों के बाद पुन: अपने वास्तविक गुणों को ही प्राप्त / धारण कर लेते है |

        नोट :-  मौलिक गुणों के सिद्धांत के अनुसार ऐसा माना जाता है, कि नानी के गुण नातिन तथा दादा के गुण पौत्र में प्रकट हो जाते है |

  • गाल्टन का सिद्धांत :- गाल्टन के अनुसार एक बालक में जो गुण पाए जाते है वे 50-50% माता-पिता से अर्जित करता है, तथा 25-25% दादा – दादी से अर्जित होते है इसी क्रम में पूर्व की पीढ़ियों में क्रमशः आधे हो जाते है तथा एक सीमा के बाद शून्य हो जाते है |
  • प्रत्यागमन का सिद्धांत :- इस सिद्धांत के अनुसार कई बार ऐसा भी देखा गया है, कई जो गुण माता – पिता में पाए जाते है उनके ठीक विपरीत गुण / लक्षण संतानों में प्रकट हो जाते है | 
  •  विभिन्नता का सिद्धांत :- सामान्यतया देखा जाता है कि संतानों में पाए जाने वाले गुण / लक्षण सदैव माता – पिता के समान नही होकर रंग, रूप, कद, काठी या व्यवहार के दृष्टिकोण से भिन्न – भिन्न होते है |

अभिवृद्धि – विकास 

  • अभिवृद्धि शब्द का उपयोग केवल शारीरिक वृद्धि यानि लम्बाई, वजन एवं विभिन्न अंगों में होने वाली वृद्धि के लिए किया जाता है | परन्तु विकास का अभिप्राय केवल शारीरिक वृद्धि से नहीं बल्कि शरीर में वृद्धि होने के साथ ही मानसिक, बौद्धिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक क्षेत्र के परिवर्तन भी सम्मिलित किये जाने से होता है |

परिभाषा :- 

  • फ्रेंक के अनुसार :- कोशिकीय गुणात्मक वृद्धि ही अभिवृद्धि है |
  • श्रीमती हरलॉक के अनुसार :- विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है, यह तो परिपक्वता की दिशा में होने वाले परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम है | जिसके द्वारा एक बालक में नई – नई विशेषताएँ एवं योग्यताएँ प्रकट होती है |


अभिवृद्धि एवं विकास में अंतर 
  • अभिवृद्धि व विकास एक साथ जन्म पूर्व  आरम्भ होती है अभिवृद्धि किशोरावस्था पूर्ण होने पर रुक जाती है और विकास  मृत्यु तक बिना रुके चलता है |
  • अभिवृद्धि केवल शारीरिक पक्ष को दर्शाती है जिसका तात्पर्य शारीरिक अंगों में बढ़ोतरी है |
  • जबकि विकास एक बहुमुखी प्रक्रिया है जो शारीरिक के साथ – साथ मानसिक, सामाजिक व संवेगात्मक प्रकार का होता है |
  • अभिवृद्धि की चरमावस्था या परिपक्वता अवस्था किशोरावस्था को कहते है |
  • जबकि विकास की चरमावस्था व्यक्ति की अधिकतम आयु होती है |
  • अभिवृद्धि मापनीय है जबकि विकास अमापनीय है |
  • अभिवृद्धि मूर्त रूप है जबकि विकास अमूर्त रूप है |
  • अभिवृद्धि एवं विकास की अवस्थाओं को निम्नानुसार वर्गीकृत किया जाता है |
  जन्म से पूर्व की अवस्था           जन्म के बाद की अवस्था 
   भ्रूणावस्था / गर्भावस्था               शैशवावस्था – 0 से 5-6 वर्ष   
    0 – 273 दिन / 9 माह               बाल्यावस्था 6 से 12 वर्ष 
                                                  किशोरावस्था 12/13 से 18/19 वर्ष 
                                                  प्रौढ़ावस्था 18/19 के बाद मृत्यु तक 

अभिवृद्धि एवं विकास के सिद्धांत 

(1) सिफैलोकांडल विकास का सिद्धांत (अपादमस्तक) :- मानव शिशु में अभिवृद्धि व विकास सिर से आरम्भ होकर पैरों की तरफ होता है | इसे ही सिफैलोकांडल विकास कहते है |


(2) सामान्य से विशिष्ट का सिद्धांत :- मानव में सर्वप्रथम सामान्य व्यवहार किये जाते है और फिर यह धीरे – धीरे विशिष्ट व्यवहार करने लगता है |

जैसे :- मानव शिशु आरम्भ में रेंगकर चलता है फिर वह घुटने के बल चलता है और अंत में सीधा खड़ा होकर चलता है | 

(3) सतत विकास का सिद्धांत :- अभिवृद्धि व विकास जन्म पूर्व से आरम्भ होकर मृत्यु तक बिना रुके लगातार चलते है |



(4) परस्पर सम्बद्धता का सिद्धांत :- सभी विकास परस्पर एक – दूसरे से सम्बन्धित होते है अर्थात शारीरिक अभिवृद्धि और विकास के साथ – साथ मानसिक विकास, सामाजिक विकास और संवेगात्मक विकास भी होते है |


(5) व्यक्तिगत विभिन्नताओं का विकास :- संसार के किन्ही भी दो मनुष्यों में अभिवृद्धि व विकास एक समान नही होता है यहाँ तक की जुड़वाँ बच्चों में भी अलग – अलग पाया जाता है |  



(6) विभिन्न अंगों में विकास की गति में भिन्नता का सिद्धांत :- बाल्यावस्था तक जनन अंगों के अलावा शरीर के अन्य अंगों में अभिवृद्धि और विकास की गति में भिन्नता दिखाई देती है |
जैसे :- यहाँ जनन अंगों की अभिवृद्धि कम होती है लेकिन किशोर अवस्था में जनन अंगों में अभिवृद्धि और विकास की दर अधिक हो जाती है |

(7) वंशानुक्रम व वातावरण का सिद्धांत :- वंशानुक्रम व वातावरण सदैव गुणात्मक रूप में अभिवृद्धि व विकास को प्रभावित करता है |

वंशानुक्रम X वातावरण = विकास व अभिवृद्धि 

(8) जन्म क्रम का सिद्धांत :- यदि एक परिवार में एक से अधिक बच्चे है तो अभिवृद्धि व विकास की दर सबसे छोटे बच्चे में सर्वाधिक होती है |

अभिवृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले तत्व :- 

(1) वंशानुक्रम [90%]
(2) वातावरण 
(3) पोषण 
(4) अंत: स्त्रावी ग्रंथियों से स्रावित हार्मोन 
(5) अभ्यास 
(6) परिपक्वता 
(7) लिंग 
(8) आनुवंशिक रोग 
(9) अर्जित रोग / चोट / दुर्घटना 
(10) शिक्षा व प्रशिक्षण 


शारीरिक अभिवृद्धि और विकास 

शैशवावस्था 
  • उपनाम – सीखने का आदर्श काल, तीव्र विकास काल, जीवन की आधार शीला, खिलौनों की अवस्था, नैतिक शुन्यता काल, उदासीनता काल, सजीव चिंतन की अवस्था, अनुकरण की अवस्था | 
  • 20 वीं सदी में बालकों को लेकर बहुत सारे अनुसंधान होने के कारण क्रो और क्रो ने 20 वीं सदी को “बालको की सदी” माना है | 

परिभाषाएँ – 

  • वेलेंटाइन के अनुसार :- शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है |
  • वाटसन के अनुसार :- शैशवावस्था तीव्र विकास की अवस्था है | 
  • फ्रायड के अनुसार :- शैशवावस्था भावी जीवन की आधार शिला है | 


शैशवावस्था में शारीरिक अभिवृद्धि व विकास :- 

  • नवजात शिशु का वजन 7 पौण्ड का होता है या यह 3.175 Kg होता है | 
            नोट :- जन्म के बाद शिशु का वजन पहले सप्ताह में घटता है तथा उसके बाद बढ़ जाता है या बढने लगता है |
  • नवजात शिशु की लम्बाई 20 ईंच होती है | या 50.8 सेमी. होता है |
  • नवजात शिशु के मस्तिष्क का वजन 350 ग्राम होता है और शैशवावस्था की समाप्ति तक 1250 ग्राम का हो जाता है |
  • नवजात शिशु में श्वसन दर 40/मिनट होती है जो 5-6 वर्ष की आयु में 30 – 35 प्रति मिनट रह जाती है |
  • नवजात शिशु  में ह्रदय दर 120 – 140 प्रति मिनट होती है | जो शैशवावस्था की समाप्ति तक 100/मिनट रह जाती है |
  • मानव शिशु में अस्थियों की संख्या 270 होती है | जो पहले बढती है एवं बाल्यावस्था तक 350 हो जाती है और फिर अस्थिकरण के द्वारा घटकर वयस्क होने तक 206 रह जाती है | 
  • जन्म के समय शिशु के वजन का लगभग 23% भाग मांस पेशियों से बना होता है तथा शैशवावस्था के उत्तर काल तक 27 -28 % ओ जाता है |
  • 6 माह की आयु में अस्थायी दांत आना आरम्भ हो जाते है जो पाँच वर्ष की आयु तक 20 हो जाते है | इन्हें दूध के दांत कहते है | 
   
दांत चार प्रकार के होते है – 
    1. I – इन्साइजर (कृन्तक) – 8
    2. C – कैनाइन (रदनक/श्वानदन्त) – 4
    3. Pm – प्री – मोलर (अग्र-चर्वणक) – 8
    4. M – मोलर (चर्वणक) – 12

दंत सूत्र – 



अस्थाई दांत – 0 – 5  वर्ष तक 




  • शिशु में प्रीमोलर दांत नहीं पाए जाते हैं ।
  • शैशवावस्था की समाप्ति तक उत्सर्जन तंत्र, पाचन तंत्र आदि की क्रियाएं नियंत्रित हो जाती हैं। 
  • इस अवस्था में अस्थियां, मांसपेशियां और तंत्रिका तंत्र भी मजबूत हो जाते हैं।


नोट :- 
  • शैशवावस्था में शारीरिक अभिवृद्धि व विकास की दर अन्य किसी भी अवस्था की तुलना में सर्वाधिक होती हैं। 
  • बालक की अपेक्षा बालिका में दांत जल्दी आते है |
  • गर्भ काल में 5 वें माह में दांत बनने लगते है |
  • दांतों को शीघ्र निकलने में कैल्शियम उपयोगी होता है | 

शिशु की प्रतिवर्त / Reflexes 

1. रूटिंग :- गलों एवं होठों को छूने पर मूंह खोलना एवं सर को घुमाना |

2. स्टेपिंग :- समतल पर खड़ा करने पर पैरों में होने वाली लयात्मक गति |

3. बॉबिन्सकी :- तलवों को गुदगुदाने पर पंजों को फैला देना एवं पीछे मुड जाना |

4. मोरोकिस :- अचानक तेज ध्वनि होने पर सीने को अर्द्ध वृत्ताकार रूप में उठाना, बाँहों को फैलाना तथा पुन: समेटना मानों कुछ पकड़ना चाहता हो |

5. डार्विनी / ग्रेस्पिंग :- ऊंगलियों व हथेली की मजबूत पकड |

6. टोनिक नेक :- लेते हुए शिशु का अपने चेहरे जो हाथ व पांव की दिशा में मोड़ना |

7. कुइंग / कुकिंग / गर्गलिंग :- शिशु का अपनी माता से किया गया सम्प्रेषण | 

शैशवावस्था में मानसिक विकास

जाॅन लाॅक  के अनुसार :- ” नवजात शिशु का मस्तिष्क कोरे कागज के समान होता है जिस पर वह अपना अनुभव लिखता है।”
वैलेंटाइन के अनुसार :- “शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल होता है।”
जॉन ब्रोड्स वाटसन के अनुसार :- ”  संस्था में सीखने की सीमा व्यक्ति किसी भी अन्य अवस्था की तुलना में सर्वाधिक होती है।” 
किलपैट्रिक के अनुसार :-  4 वर्ष की उम्र में बालक को लिखने पढ़ने की शिक्षा देना कच्चे पदार्थ को जबरदस्ती पकाना है।
श्रीमती गुड एन.एफ. के अनुसार :- तीन वर्ष की आयु तक बालक की बुद्धि का आधा विकास हो जाता है |
फ्रायड के अनुसार :- लगभग 5 वर्ष की आयु तक बालक को जो बनना होता है बन जाता है |
  • शिशु में ज्ञानेंद्रियों द्वारा अनुभव करके सीखने की क्रिया आरंभ होती है। 
  • शैशवावस्था में अनुकरण द्वारा सर्वाधिक सीखा जाता है।
  • जन्म के प्रथम सप्ताह में शिशु में मूल प्रवृत्तियों का विकास आरंभ हो जाता है जैसे उबासी लेना,  खांसना, छींकना, हाथ पैर हिलाना  आदि। 
  • दूसरे सप्ताह में शिशु प्रकाश चमकीली व बड़े आकार की वस्तुओं को ध्यान पूर्वक देखता है। 
  • जन्म के प्रथम माह में वह दी जाने वाली वस्तुओं को दोनों हाथों से पकड़ने की चेष्टा करता है।
  • दूसरे माह में वह सुनने के लिए अपना सिर घुमाने लगता है।
  • चौथे माह में वह वस्तु को दोनों हाथों से पकड़ने में सक्षम हो जाता है।
  • छठे माह में अपना नाम समझने लग जाता है ध्वनि का अनुकरण करने लगता है और प्रेम व क्रोध में अंतर करने लग जाता है।
  • दसवें माह में वह अपना खिलौना छिन जाने से विरोध करने लग जाता है।
  • 1 वर्ष की आयु में शिशु 3 से 4 शब्द बोलने लगता है जैसे बाबा,  पापा, मामा ।
  • इसके पास लगभग 100 से 200 शब्दों का भंडार हो जाता है। 
  • 5 से 6 वर्ष की आयु में शिशु के पास लगभग 1500 से 1800 शब्दों का भंडार हो जाता है। 
शैशवावस्था में सामाजिक विकास 
  • क्रो एवं क्रो के अनुसार :- नवजात शिशु जन्म के समय ना तो सामाजिक होता है और ना ही असामाजिक लेकिन अधिक समय तक वह इस अवस्था में नही रह सकता है |
  • सिगमण्ड फ्रायड के अनुसार :- मानव शिशु 4-5 वर्ष की आयु में ही भावी जीवन के विकास के लिए पूर्ण उत्पाद बन जाता है | 
  • शिशु में सामाजिकरण की प्रक्रिया माता से आरम्भ होती है | 
  • तीन माह का शिशु अपनी माता को पहचानने लग जाता है | और यदि वह इसे छोड़कर चली जाती है तो वह वियोग के कारण रोने लगता है | 
  • 6 माह का शिशु अपने परिवार के सदस्यों को पहचानने लग जाता है लेकिन वह अपरिचित व्यक्तियों को देखकर रोने लगता है | 
  • 1 वर्ष का शिशु अपने परिवार के सदस्यों के पास खुद चलकर जाने लग जाता है |
  • 2 वर्ष का शिशु परिवार के वयस्क सदस्यों के साथ किसी ना किसी कार्य में संलग्नता दर्शाने लगता है |
  • 3 वर्ष का शिशु अपने हम उम्र शिशुओं के साथ खेलने लगता है | लेकिन अपना खिलौना उन्हें नहीं देता, साथ ही वह चीजों पर अपना अधिकार जताने लगता है | 
  • शैशवावस्था में ही आत्मप्रदर्शन की भावना दिखने लगती है | 
  • 5 – 6 वर्ष की आयु में शिशु अपने खिलौने से दूसरे शिशुओं को भी खेलने देता है और उसका व्यक्तित्व अंर्तमुखी से बहिर्मुखी होने लगता है | 
 

बाल्यावस्था में शारीरिक अभिवृद्धि व विकास

        उपनाम :- टोली की अवस्था, खेलों की अवस्था, निश्चिन्ता की अवस्था, अनोखा काल, निर्माणकारी अवस्था, मंद परिवर्तन काल आदि | 

फ्रायड  :- बाल्यावस्था जीवन की निर्माणकारी  अवस्था है |
राॅस :- बाल्यावस्था छद्म (मिथ्या या झूठ) परिपक्वता अवस्था है | 
काॅल व ब्रुस :- ” बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल है |” 
सिगमंड फ्रायड :- ” बाल्यवस्था जीवन का निर्माण कार्य काल है |”
किलपैट्रिक :- बाल्यावस्था प्रतिद्वंदात्मक समाजीकरण की अवस्था है | 
स्ट्रेग :- 10 वर्ष की अवस्था तक ऐसा कोई खेल नहीं होता, जिसे बालक नही खेलता है |
  • बाल्यावस्था में अस्थियों की संख्या सर्वाधिक पाई जाती है | 
  • बाल्यावस्था के प्रारम्भ में मांस पेशियों का वजन कुल वजन का लगभग 27-28 % तथा उत्तर काल तक 30% तक हो जाता है | 
  • इस अवस्था में बाह्य रूप से परिवर्तन बहुत कम होते है तथा आंतरिक परिवर्तन अधिक होते है इसलिए मंद परिवर्तन काल कहलाता है | 
  • बाल्यावस्था में अस्थाई चिह्न गायब होकर स्थाई चिह्न आने लगते है जैसे दूध के दांत के स्थान पर स्थाई दांत आ जाते है | 
  • बाल्यावस्था में श्वसन दर 25 से 30 प्रति मिनट रह जाती है।
  • बाल्यावस्था में हृदय दर 82 प्रति मिनट रह जाती है।
  • बाल्यावस्था में मस्तिष्क का वजन 350 ग्राम हो जाता है अर्थात मस्तिष्क का लगभग 90% भाग अभिवृद्धि कर लेता है।
  • 5 से 6 वर्ष की आयु में स्थाई दातों की जगह स्थाई दांत आने लग जाते हैं और इनकी कुल संख्या 28 हो जाती है।
  • बाल्यावस्था अवस्था में शारीरिक अभिवृद्धि एवं विकास की दर उस समय के लिए मंद पड़ जाती है जिससे कि किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तनों का सामना किया जा सके। 

बाल्यावस्था में मानसिक विकास 

  • इस अवस्था में लगभग 75% बौद्धिक क्षमता का विकास हो जाता है तथा बालक में मूर्त चिंतन पैदा होने लगता है पलट कर जवाब देना यानि पलटावी चिंतन विकसित हो जाता है | बालक संक्रियाएँ करना गणना करना तथा 9 वर्ष आते – आते तर्क करना सीख जाता है | 
  • स्थायी स्मृति (याददास्त), चिंतन, कल्पना, स्मरण, अवधान, अभिरुचियाँ आदि मानसिक शक्तियाँ बाल्यावस्था से विकसित होना आरम्भ होती है | 
  • बाल्यावस्था में जिज्ञासा प्रवृत्ति सर्वाधिक पाई जाती है अत: वह प्रत्येक वस्तु, क्रिया, घटना आदि के बारे में अपने शिक्षकों और अभिभावकों से प्रश्न पूछता है | अत: उसकी जिज्ञासा प्रवृत्ति को शांत किया जाना चाहिए |
  • बाल्यावस्था में संग्रह प्रवृत्ति विकसित होने लगती है जिससे वह विभिन्न पक्षियों के पंख, पत्थर, माचिस के कवर आदि को एकत्रित करने लगता है |
  • 7 वें वर्ष में वह एक जैसी दो से अधिक वस्तुओं में अंतर करने लग जाता है | 
  • आठवें वर्ष में छोटी कहानियों और कविताओं को दोहराने लगता है |
  • नवें वर्ष में वह दिन, दिनांक, माह, वर्ष आदि का ज्ञान कर लेता है | 
  • दसवें वर्ष में बालक तीन मिनट में बिना रुके 60-70 शब्दों को बोलने लग जाता है और दैनिक जीवन के नियमों, परम्पराओं आदि की थोड़ी बहुत जानकारी हासिल कर लेता है | 
  • 11 वें वर्ष में वह निरीक्षण द्वारा घरेलू कल पुर्जों, पशु – पक्षियों और वातावरण परिवर्तनों की जानकारी हांसिल कर लेता है | 
  • 12 वें वर्ष में समस्या समाधान की शक्ति का विकास हो जाता है और कठिन शब्दों का अर्थ जानने की योग्यता विकसित हो जाती है | 

बाल्यावस्था में सामाजिक विकास 

  • किलपैट्रिक के अनुसार :- ” बाल्यावस्था प्रतिद्वन्दात्मक समाजीकरण की अवस्था है |”
  • क्रो एवं क्रो के अनुसार :- 6 – 10 वर्ष का बालक वांछनीय व अवांछनीय व्यवहार में निरंतर उन्नति करता है व बहुधा (अधिकांशत:) उन्ही कार्यों को करता है जिनके किये जाने का कोई स्पष्ट कारण नही जान पड़ता |
  • इसे दल भावना की आयु भी कहा जाता है इसके सभी सदस्य समलैंगिक होते है | 
  • दल का एक नेता या नेत्री होती है जिसके प्रति सभी सदस्य वफादार होते है |
  • जिज्ञासा प्रवृति के कारण बालक इधर – उधर घूमता रहता है | 
  • इसी आयु में गुड्डे – गुड्डियों के खेल खेले जाते है | 
  • इसे विद्यालयी आयु भी कहा जाता है अत: बालकों में अच्छे सामाजिक विकास के लिए कुछ स्वस्थ्य सामाजिक कार्य करवाए जाते है | जैसे बाल सभा, प्रार्थना सभा, शैक्षिक भ्रमण, सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेलकूद आदि |
  • इस अवस्था में बालकों में एक मनोवैज्ञानिक ग्रन्थि ओडोपस का विकास होता है जिसकी वजह से बालक अपनी माता से अधिक प्रेम करने लगते है | और पिता को अपना दुश्मन समझता है | और वह सोचता है की पिता एक शक्तिशाली पुरुष है जो मेरी माता पर अत्याचार करता है | और वह सोचता है की मेरे पिता मेरा लिंग कटवा देंगे जिसे वन्ध्याकरण चिंता कहा जाता है | जिसके कारण वह बालक भविष्य में शेखीबाज, उतावला और उच्चाकांसी बनता है | 
  • इसी प्रकार लड़कियों में भी एक मनोवैज्ञानिक ग्रन्थि एलेक्ट्रा का निर्माण हो जाता है जिसके कारण वह अपने पिता से अधिक प्रेम करती है और अपनी माता को अपना दुश्मन समझती है | इसके कारण उस बालिका में लिंगईर्ष्या (Penis Anxiety) हो जाती है और वह भविष्य में ईश्कबाज, सम्मोहक बनती है | 
  

किशोरावस्था 

        उपनाम :- टीन एज, एड़ोलसेंस, कठिन काल, परिपक्वता की अवस्था, पूर्व नैतिक काल, पूर्व मानसिक विकास काल, आत्म सम्मान की अवस्था, संघर्ष व तूफान की अवस्था, संवेग-आवेग तीव्रता काल, पूर्ण समाजीकरण अवस्था आदि | 


        किशोरावस्था में विकास के सिद्धांत 


  • अकस्मात परिवर्तनों का सिद्धान्त (स्टेनली हॉल) :- 11-12 वर्ष की अवस्था के बाद बालक – बालिका में अकस्मात परिवर्तन आता है और वें किशोर – किशोरी बन जाते है | 

  • नोट :- स्टेनली हॉल को किशोर मनोविज्ञान का जनक माना जाता है | 


  • क्रमिक विकास क्रम का सिद्धांत (थॉर्नडाइक, हॉल्पिंग बर्थ, किंग) :- इस सिद्धांत के अनुसार कोई भी परिवर्तन अकस्मात सम्भव नही है | परिवर्तन तो क्रमिक रूप से होने वाले परिवर्तनों का परिणाम है | यानि किशोरावस्था में दिखाई देने वाले परिवर्तन क्रमशः गर्भकाल, शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था के विकास का परिणाम होता है | 
            परिभाषाएँ –
  • स्टैनले हॉल के अनुसार :-  किशोरावस्था संघर्ष तूफान तनाव और झंझावात की अवस्था है
  • जरशिल्ड के अनुसार :- यह है वह अवस्था है जिसमें मनुष्य बाल्यावस्था से निकलकर परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है।
  • किल पैट्रिक के अनुसार :- किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है |
  • वेलेंटाइन के अनुसार :- घनिष्ठ व व्यक्तिगत मित्रता उत्तर किशोरावस्था की विशेषता है | 
  • कॉलसनिक के अनुसार :- किशोरावस्था के लोग प्रौढ़ों को अपने मार्ग की बाधा समझते है, जो उन्हें लक्ष्य प्राप्ति से रोकते है | 
  • रॉस के अनुसार :- किशोरावस्था के लोग सेवा के आदर्शों की स्थापना एवं पोषण करते है | 
  • क्रो और क्रो के अनुसार :- किशोरावस्था वर्तमान की शक्ति एवं भविष्य की आशा प्रस्तुत करती है | 
  • हेडी कमेटी के अनुसार :- 11 – 12 वर्ष की आयु के बाद बालक – बालिकाओं की नशों में ज्वार उठने लगता है  जिसे किशोरावस्था के नाम से पुकारते है इस समय यदि सही दिशा दी जाये तो वह सफलता को प्राप्त करता है | 
 

किशोरावस्था में शारीरिक अभिवृद्धि व विकास

  • इस अवस्था में मस्तिष्क अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है किशोर में यह 14 ग्राम और किशोरी में 380 ग्राम का हो जाता है।
  • श्वसन दर सामान्य हो पर 16 से 20 प्रति मिनट रह जाती है इसी प्रकार हृदय दर भी कम होकर 72 प्रति मिनट रह जाती है।
  • अस्थियां आपस में जोड़कर 270 से कम होकर 206 रह जाती है।
  • किशोरावस्था में जनद ग्रंथियों से कुछ हार्मोन स्रावित होते हैं जो किशोर व किशोरियों की अभिवृद्धि व विकास को प्रभावित करते हैं।
  • किशोर में वृषण नामक जनद ग्रंथि पाई जाती है जिससे टेस्टोस्टेरोन नामक हार्मोन स्रावित होता है।
  • किशोरियों में अंडाशय नामक जनद ग्रंथि पाई जाती है जिससे प्रोजेस्टेरोन व एस्ट्रोजन नामक हार्मोन स्रावित होते हैं।
  • इन हार्मोन के प्रभाव से किशोर किशोरियों में कुछ शारीरिक परिवर्तन होने लगते हैं।
किशोर में –
– किशोर में कंधों का आकार बड़ा होना।
– चेहरे पर दाढ़ी मूछ का आना।
– मांसपेशियों का मजबूत होना और भुजाओं का बलिष्ठ होना।
–  आवाज का भारी होना।
किशोरियों में- 
– शरीर के कुछ हिस्सों पर वसा का जमाव होना।
– आवाज का बारिक होना ।
– त्वचा का मुलायम होना।
– हिप्स की अस्थियों के आकार का बड़ा होना।
  • इन हार्मोन के प्रभाव से ही जनन अंगों की अभिवृद्धि व विकास की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है और जन्म क्षमता प्राप्त कर ली जाती है।
  • कील मुंहासे भी हार्मोन के प्रभाव से उत्पन्न होते हैं।
  • किशोरी में शारीरिक अभिवृद्धि और विकास की दर अधिक होती है अतः किशोरावस्था 16 वर्ष की आयु में पूर्ण हो जाती है। 
  • जबकि किशोर में यह 18 से 19 वर्ष की आयु में पूर्ण होती है।

किशोरावस्था में मानसिक विकास

  • आर. एस. वुडवर्थ के अनुसार :- मानसिक विकास 15 – 16 वर्ष की आयु में अपनी उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है | 
  • इस अवस्था में बालक में सूक्ष्म चिन्तन, स्मरण, स्थायी स्मृति, अवधान, कल्पना, अभिरुचियाँ, तर्क आदि मानसिक शक्तियाँ पूर्ण रूप से विकसित हो जाती है | 
  • किशोरावस्था में स्थानीय राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं का समाधान निकालने की योग्यता विकसित हो जाती है | यद्यपि उसका निकाला गया समाधान अनुभवहीन और पक्षपात पूर्ण हो सकता है | 
  • सही और गलत में अंतर करना इसे आ जाता है अत: ये अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने लगता है | 
  • समाज की रूढ़िगत बातों को नहीं मानता और अपने ही तरीके से नियम बनाने लगता है अत: इसे क्रांतिकारी अवस्था भी कहते है | 
  • किशोर अपने भविष्य के बारे में अधिक चिंतित रहता है जिसमें वह रोजगार या जीवन साथी के बारे में सोचता है और अपनी अतृप्त आवश्यकताओं की पूर्ति खुली आँखों से कल्पना जगत में जाकर करता है | अत: इसे दिवा – स्वप्न की अवस्था भी कहते है |
  • इस अवस्था में अभिरुचियाँ विकसित हो जाती है कुछ अभिरुचियाँ दोनों में समान होती है और कुछ दोनों में असमान रहती है |
  • समान अभिरुचियाँ :- रोजगार से सम्बन्धित बातें करना, फ़िल्में देखना, घूमना, रोमांस, शेरो-शायरी, व्यवसाय एवं भावी जीवन के बारे में सोचना |
  • असमान अभिरुचियाँ :- किशोरियों में नृत्य, खाना बनाना, सिलाई करना, बनाई करना, बुराई करना | इसी प्रकार किशोर में व्यायाम करना, खतरनाक खेल खेलना, पहाड़ों पर चढ़ना, ऊंचाई से कूदना, समुद्री यात्रा करना, अन्तरिक्ष यात्रा करना आदि |

किशोरावस्था में सामाजिक विकास 

  • इस अवस्था में किशोर सामाजिक अभिव्यक्ति चाहता है अर्थात् वह समाज में अपना स्थान पाने का उत्सुक होता है |
  • किशोर स्वयं के नियम व निर्णय लेने लगता है अत: वह समाज के रीति – रिवाजों, परम्पराओं को नही मानता और उसका अपने माता – पिता व शिक्षकों से वैचारिक मतभेद उत्पन्न हो जाता है | अर्थात् एक पीढ़ी अन्तराल दिखाई देने लगता है अत: इसे क्रांतिकारी अवस्था भी कहा जाता है | 
  • इसे दर्पण आयु भी कहा जाता है क्योंकि वह जब भी मौका मिलता है दर्पण के सामने अपने आप को प्रस्तुत कर आकर्षक दिखने का प्रयास करता है | 
  • किशोरावस्था में आत्मप्रदर्शन की भावना सर्वाधिक होती है इसलिए वह दिन में कई बार वेश – भूषा बदलता है अनौखी भाषा का प्रयोग करता है और सामाजिक कार्यों में बढ़ चढ़ क्र हिस्सा लेता है |
  • इस समय विषम लैंगिक दलों का निर्माण होने लगता है यद्यपि कुछ समलैंगिक दल भी बनते है |
  • देश सेवा, समाज सेवा, धर्म के प्रति आस्था, सहयोग भावना आदि किशोरावस्था में अधिक होती है |
  • किशोरावस्था में कुछ सामाजिक अभिरुचियों का विकास भी होता है जैसे – पत्राचार, SMS. फेसबुक, पार्टियाँ आयोजन करना, वर्ष में कई बार जन्म दिन मनाना आदि |
 
Email

No Responses

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *